ज़िंदगी की धूप छाँव में
सिहरती सिमटती चलती ही जा रही हूँ
सुख दुःख की उँगलियाँ थामे !
साँझ के साथ साथ मन में भी
अन्धेरा घिर आया है
चहुँ ओर पसरा मौन सहमा जाता है मुझे
प्रतीक्षा है सवेरा होने की,
पंछियों के कलरव की मधुर आवाज़ की
मंज़िल दूर है और राह लम्बी
थके हुए हौसले को झकझोर कर
कभी स्वप्न आगे खींचते हैं
तो कभी हताशा पीछे से डोर खींचती है
और मैं उड़ती ही जाती हूँ
डोर से कटी पतंग की तरह
कभी यहाँ तो कभी वहाँ !
साधना वैद
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 12 अक्टूबर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी ! आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार प्रिय यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
Deleteभावनाओं से ओतप्रोत बहुत ही मार्मिक व हृदय स्पर्शी रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मनीषा जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteसुंदर, सार्थक रचना !........
ReplyDeleteMere Blog Par Aapka Swagat Hai.
हार्दिक धन्यवाद संजू जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteआपका ह्रदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रवीन्द्र जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति |सार्थक रचना |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! बहुत बहुत आभार !
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