प्रिय शुचि,
आज जीवन के जिस मोड़ पर हम
आ खड़े हुए हैं वहाँ से हमारी मंज़िलों के रास्ते अलग अलग दिशाओं के लिए मुड़ गए हैं !
मुझे नहीं लगता कि हम अब फिर से कभी एक ही राह के हमसफ़र हो सकेंगे ! इनके पीछे
क्या वजहें रहीं उनके विश्लेषण के लिये एक ईमानदार आत्मचिंतन की बहुत ज़रुरत है !
वो पता नहीं हम और तुम कभी कर पायेंगे या नहीं लेकिन यह सच है कि अपनी सोच और अपने
फैसले को, सही हो या ग़लत, उचित सिद्ध करने की धुन में प्रेम और विश्वास की डोर को
तुमने इतने झटके के साथ खींचा कि वह टूट ही गयी और अब उसका जुड़ना नितांत असंभव है !
जानता हूँ इलाज के लिए मम्मी पापा को यहाँ अपने पास ले आने का मेरा फैसला तुम्हें अच्छा नहीं लगा था ! लेकिन इकलौता बेटा होने के नाते यह मेरी मजबूरी भी थी और वक्त की माँग भी इससे मैं कैसे मुँह मोड़ सकता था ! उनको इतने गंभीर रूप से बीमार और असहाय अवस्था में मैं कैसे अकेले छोड़ सकता था ! पत्नी होने के नाते तुम मेरा साथ दोगी शायद मेरी यही सोच उल्टी पड़ गयी ! मैंने कैसे तुम पर इतना भरोसा कर लिया जबकि २५ साल के हमारे वैवाहिक जीवन में मैंने कभी २५ घंटे भी तुम्हें उनके साथ खुश नहीं देखा, न ही कभी सद्भावना के साथ तुम्हें उनसे बात करते हुए ही पाया ! अनबन, मन मुटाव, मतभेद हर घर में होते हैं लेकिन मन में बैर भाव की पक्की गाँठें इस तरह नहीं बाँध ली जातीं जैसे तुमने अपने मन में बाँध रखी हैंं !
मम्मी पापा इतने ज्यादह बीमार हैं मैंने सोचा था ऐसे समय में तो तुम्हारा मन ज़रूर पिघल जाएगा ! लेकिन तुमने तो जैसे असहयोग और असंतोष की कसम ही खा रखी थी ! हर रोज़ कलह, हर रोज़ क्लेश, हर रोज़ तमाशे ! मम्मी पापा का कोई काम तुम्हें नहीं करना होता था ! पापा ब्रेन कैंसर के और मम्मी लकवे की मरीज़ ! दोनों इतने अशक्त और असहाय कि जब तक कोई दूसरा मुँह में न डाले तो पानी पीने से भी लाचार ! ऐसे में तुम्हारा यह विरोध और असंतोष भला कहाँ तक उचित था और मैं तुम्हारी इस अमानवीय मानसिकता के लिए कैसे तुम्हें सही ठहरा सकता था, कैसे तुम्हारा साथ दे सकता था ! जबकि हकीकत यह है कि इन पच्चीस सालों में मैंने अब तक हर कदम पर तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा ही साथ दिया था ! अपने मम्मी पापा और भाई बहनों की नज़रों में मैं बिलकुल नालायक और निकम्मा बेटा सिद्ध हो चुका था ! सबका यही मानना था कि मेरे घर में तो तुम्हारा ही शासन चलता है और मैं अपने बलबूते पर कोई फैसला ले ही नहीं सकता ! इतने सालों तक जो मैं तुम्हें ही सही ठहराता रहा शायद यही मेरी सबसे बड़ी भूल थी ! तुम्हारे हर सही गलत फैसलों में तुम्हारा साथ देकर मैंने तो जैसे अपनी पहचान ही खो दी थी ! ऐसे में मेरा भी कोई फैसला हो सकता है जो तुम्हारे फैसले से मेल न खाता हो यह भला तुम कैसे बर्दाश्त कर पातीं ! इसीलिये मम्मी पापा के यहाँ आने के बाद से तुम्हारा रवैया ही बदल गया था ! न तुम्हें उनके इलाज उपचार से कोई मतलब था न सेवा टहल से ! न उनके खाने पीने का तुम्हें कोई ख़याल था न कभी उनके पास बैठ कर दो बोल मीठे बोलने की तुम्हारे पास फुर्सत थी ! उस पर तुम्हारे नित नए फरमान मुझे चौंका जाते थे !
"हमारी वाशिंग मशीन में
उनके कपड़े हमारे कपड़ों के साथ नहीं धुलेंगे ! आप उनका कोई और इंतजाम कर लेना !"
"हमारे फ्रिज में उनकी
दवाएं इंजेक्शन वगैरह नहीं रखने दूँगी ! सारे फ्रिज में महक भर जायेगी दवाओं की !"
"उनके काम के लिए कोई
इंतजाम कर लेना ! मुझे तो ऑफिस के काम से ही फुर्सत नहीं मिलती ! मुझसे कोई उम्मीद
मत रखना !"
तुम्हारी इन बातों ने
मेरा दिल तोड़ दिया था ! २५ सालों का हमारा प्यारा नेहबंधन पल भर में ही शीशे की
मानिंद टूट कर बिखर गया था ! मम्मी पापा कोई हम पर भार नहीं थे ! दोनों सरकारी
नौकरी से अच्छे पद से रिटायर हुए थे और दोनों को ही इतनी पेंशन मिलती थी कि वे आर्थिक
रूप से अपने दवा इलाज के लिए किसी पर ज़रा भी निर्भर नहीं थे ! लेकिन बीमारियों ने
उनके शरीर को खोखला कर दिया था ! ब्रेन कैंसर के अलावा पापा को और भी कई तकलीफें
हैं जैसे पार्किन्सन, अल्जाइमर और भी बहुत कुछ ! उन्हें कुछ याद नहीं रहता ! दो कदम चलते
हैं तो लड़खड़ा कर गिर जाते हैं ! इतने दिनों से मम्मी की देखभाल वो ही तो अकेले कर
रहे थे ! लेकिन अब जब उनकी खुद की ऐसी हालत हो गयी है तो उन्हें कैसे अकेला छोड़ दूँ
! तुम्हारी परवरिश और संस्कार शायद तुम्हें इसकी इजाज़त देते हों लेकिन मैं इतना
पत्थर दिल नहीं हो सकता !
तुम्हें परेशानी न हो
इसीलिये मुझे मम्मी पापा के यहाँ से उनका फ्रिज, टी वी, वाशिंग मशीन, हॉस्पिटल
वाला बेड सब कुछ लाना पड़ा ! लेकिन फिर भी तुम्हारी भृकुटी ढीली नहीं हुई ! मम्मी
पापा के बर्तन तक कहीं तुम्हारे बर्तनों से न छुल जाएँ इसकी भी तुम्हे चिंता रहती
थी ! उनके जूठे बर्तनों को दूर किचिन से बाहर रखा जाता जैसे वे घर सदस्य के न होकर
किसी अछूत प्राणी के बर्तन हों या उन्हें कोई छूत की बीमारी लगी हो !
तुम्हारे व्यक्तित्व के
इस रूप ने तुम्हारे प्रति मेरे सारे प्रेम और मोह को सुखा दिया था ! घर में शान्ति
बनी रहे और पापा मम्मी को इन बातों की भनक ना लगे मैं इसीलिये खामोशी से तुम्हारी
हर डिमांड पूरी करता जाता था ! ऑफिस तो मुझे भी जाना होता था ! तुम तो घर में होने
पर भी उस कमरे में झाँकती तक नहीं थीं तो फिर क्या करता मैं ! इसीलिये मुझे मीना और
सरला को काम पर रखना पड़ा मम्मी पापा की सेवा के लिए ! मीना दिन में घर पर रह कर १२
घंटे की ड्यूटी देती और सरला रात में मम्मी के पास रहती !
मीना और सरला पराई स्त्रियाँ
हैं ! वेतन लेती हैं और मम्मी पापा का काम करती हैं ! गरीब हैं, कम पढ़ी लिखी हैं लेकिन
शुचि, उनका दिल बहुत बड़ा है ! वे मम्मी पापा की सेवा मन से करती हैं ! उनकी हर
ज़रुरत का, छोटी से छोटी तकलीफ का ध्यान रखती हैं ! जो काम पुत्र वधु होने के नाते
तुम्हें करने चाहिये थे, मम्मी पापा की जिन ज़रूरतों का ध्यान तुम्हें रखना चाहिए था
उन सबका ख़याल मीना और सरला रख रही थीं ! तुम ऑफिस से आने के बाद अपना कमरा अन्दर से
बंद कर आराम करने चली जाती थीं ! कभी पूछा तुमने मम्मी पापा ने चाय पी या नहीं ?
उन्होंने खाना खाया या नहीं ? उनकी तबीयत दिन में ठीक रही या नहीं या रात को खाने
में उनके लिए क्या बनवाना चाहिए जिसे वो ठीक से खा सकें ! उसे पचा सकें ! ये सारी
बातें मीना और सरला मुझसे पूछतीं मेरे साथ बैठ कर मुझसे सलाह मशवरा करतीं !
मुझे याद है उस दिन पापा
को खून की उल्टी हुई थी तुम तो नाक भौं सिकोड़ कर और अपनी कीमती साड़ी समेट कर बगल
से ऐसे निकल गयी थीं कि कहीं तुम्हारे ऊपर खून के कतरे ना गिर जाएँ ! अपना पर्स और टिफिन उठा कर तुम निस्पृह भाव से इस तरह ऑफिस चली गयीं जैसे पापा से
तुम्हारा कोई नाता ही नहीं ! एक बार भी तुमने पलट कर नहीं देखा कि पापा का क्या
हाल है ! मैंने ही ऑफिस से छुट्टी लेकर पापा को सम्हाला था ! मीना के तो हाथ पैर
फूल गए थे घबराहट के मारे ! पूरे समय वह भूखी प्यासी दौड़ती रही पापा का ख़याल रखने
के लिए ! कभी दवा देती, कभी इंजेक्शन लगाती, कभी गरम पानी से स्पंज करती, कभी कपड़े
बदलवाने में मेरी मदद करती तो कभी मम्मी की घबराहट को देख कर उन्हें अपने सीने से
चिपटा उन्हें तसल्ली देती !
दो घंटे में जब पापा की
तबीयत कुछ नियंत्रण में आई और उनकी आँख लग गयी तब उसने मुझसे चाय के लिए पूछा !
मेरी इच्छा नहीं थी ! मैंने मना कर दिया तो वह बोली, “पी लीजिये ना भैया जी ! आपके
लिए बनाउँगी तो दो घूँट मैं भी पी लूँगी ! बहुत तेज़ सर दुख रहा
है ! चार बजने को आया आपको भी भूख लगी होगी !” तब मुझे ख़याल आया कि पता नहीं इसने
भी सुबह से कुछ खाया है या नहीं ! मैंने जब पूछा तो उसने बताया कि खाना नाश्ता तो
बहुत दूर उसने तो सुबह से चाय तक नहीं पी थी ! मम्मी को नहलाते धुलाते उनकी चोटी
वगैरह करके नाश्ता कराके जैसे ही फारिग हुई थी कि पापा की तबीयत बिगड़ने लगी !
उन्हें सम्हालते, डॉक्टर के निर्देशों का पालन करते, ऊपरी साफ़ सफाई करते कब चार बज
गए पता ही नहीं चला ! शुचि, वह पराई स्त्री है लेकिन उसकी सेवा, उसकी संवेदना,
उसका प्रेम किसी सगे से भी बहुत बढ़ कर है ! उन पलों में वह पराई स्त्री मुझे तुमसे
कहीं अधिक अपनी सी और सगी सी लगी ! एक पैर पर फिरकनी सी नाचती उस स्त्री के प्रति
मेरे मन में अगाध प्रेम और श्रद्धा भाव उमड़ आया ! मैंने उससे कहा, “मीना तू बैठ मम्मी
के पास मैं अभी आता हूँ !” और उस दिन मैंने पहली बार अपने हाथों से उसके लिए चाय
बनाई ! हम तीनों ने वहीं मम्मी के साथ बैठ कर चाय पी ! उस दिन मीना के चहरे पर जो
खुशी और संतोष का भाव था वह मैंने पहले कभी नहीं देखा था ! मेरे मन में उसके लिए
कृतज्ञता का भाव था ! क्यों करती है यह मम्मी पापा की इतनी सेवा ? क्या नाता है
इसका उनके साथ ? उसका निस्वार्थ सेवा भाव देख कर मैं सच में अभिभूत था ! काश तुमने
मीना से ही इंसानियत का थोड़ा सा पाठ पढ़ लिया होता तो आज हमारी ज़िंदगी इस तरह बिखरी
हुई न होती !
धीरे धीरे यह मेरा रोज़ का
नियम बन गया ! तुम तो ऑफिस से सीधे शॉपिंग के लिए बाहर चली जातीं ! वहीं सहेलियों
सहकर्मियों के साथ चाय कॉफ़ी पीकर आतीं लेकिन मैं मम्मी पापा की वजह से ऑफिस से
सीधा घर आता और शाम की चाय अपने हाथों से ही बनाता ! मीना को भी अब शाम की चाय का
इंतज़ार रहने लगा था ! कभी देर हो जाती तो वह मम्मी पापा को बना कर दे देती लेकिन
खुद न पीती ! मुझे भी उसके साथ चाय पीना अब अच्छा लगने लगा था ! जितने समर्पण भाव
से वह पराई स्त्री मेरे बीमार मम्मी पापा की सेवा कर रही थी उसके सामने एक कप चाय
की यह सेवा तो एकदम नगण्य सी थी ! मेरे मन में उसके प्रति अपार प्रेम और आदर भाव
था ! अपने घर में भी वह तमाम मुश्किलों से जूझ रही थी ! पति की सीमित आय, बूढ़े सास
ससुर और तीन बच्चों की गृहस्थी ! ब्याहने को तैयार ननद और किशोर वय का बेरोजगार देवर
! काम न करती तो कैसे गुज़ारा होता !
उस दिन मीना बहुत परेशान
थी ! ऑफिस से आने में मुझे कुछ देर हो गयी थी ! मीना किचिन में मम्मी पापा के शाम
के खाने के लिए गरम फुल्के सेक रही थी ! मैंने पूछा, “चाय पी तुमने ?”
उसने बिना कुछ बोले अपना
सर हिला दिया ! आज उसके चहरे पर रोज़ की तरह स्वागत वाली मुस्कान नहीं थी ! मैंने
ध्यान से देखा उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं ! “ठहर जा मीना ! अभी हाथ मुँह धोकर आता
हूँ फिर हम दोनों साथ में चाय पियेंगे !” मैंने बहुत नरमी से कहा !
“नहीं भैया जी रहने दो ! आज मुझे जल्दी जाना है !
मायके जाउँगी ! अम्माँ तो पहले से ही बहुत बीमार है बाबू का भी एक्सीडेंट हो गया
है ! दिन में भैया का फोन आया था अस्पताल में भरती किया है ! डॉक्टर कह रहे हैं कि
हालत अच्छी नहीं है !” मीना बिलख बिलख कर रोने लगी थी !
“अरे तो तू गयी क्यों
नहीं अभी तक ?” मैं हैरान था !
“कैसे चली जाती भैया जी ?
मम्मी जी पापा जी को खाना कौन देता ! न आप घर में थे न शुचि भाभी ! बस आपका रस्ता
ही देख रही थी ! न जाने बाबू किस हाल में होंगे !” मीना के नेत्रों से गंगा जमुना
बह रही थीं !
उसका सेवा भाव देख कर मैं
उसके आगे नतमस्तक था ! मैंने जेब से रूमाल निकाल उसके आँसू पोंछे और उसका सर थपकते
हुए उसे सीने से लगा कर सांत्वना देने लगा ! उसी वक्त तुमने घर में प्रवेश किया !
और बिना कुछ पूछे, बिना कुछ समझे, न आव देखा न ताव चंडिका बन कर चिमटा बेलन जूते चप्पल लात घूसों के साथ मीना पर पिल पड़ीं ! बड़ी मुश्किल से तुम्हारी गिरफ्त से छूट कर मीना बाहर भागी ! मैंने लाख समझाने की कोशिश की
लेकिन तुम कुछ भी सुनने के लिए तैयार ही कहाँ थीं ! मीना किसी तरह जान बचा कर घर
से बाहर निकली !
उसी पल से मीना को तुमने
काम से हटा दिया ! तुम्हारे इस रूप को देख कर मैं हक्का बक्का रह गया था ! मीना की
अनुपस्थिति में मम्मी पापा का काम ठीक से हो रहा है या नहीं उन्हें चाय नाश्ता समय
से मिल रहा है या नहीं इससे तुम्हें कोई सरोकार नहीं था ! तुम्हें तो बस घर में अपनी
हुकूमत को चलाना था ! मीना तो चलो माना पराई स्त्री थी लेकिन क्या २५ सालों में
तुमने मुझे भी इतना ही समझा था ? इतना ही परखा पहचाना था ? क्या तुम्हें मुझ पर
ज़रा सा भी विश्वास, ज़रा सा भी भरोसा नहीं था ? इतना ही नहीं ! तुमने तो सारे
परिवार वालों, रिश्तेदारों, पास पड़ोसियों, मेरे ऑफिस के बॉस और मेरे सहकर्मियों
सबके सामने अपनी उल्टी सीधी क्षुद्र सोच का पहाड़ खड़ा कर मुझे इतना बौना बना दिया
कि मैं अपनी ही नज़रों में अपराधी बन गया ! मीना के साथ तो तुमने अन्याय किया ही था
लेकिन तुमने मुझे तो तुमने बिलकुल बर्बाद ही कर दिया ! बच्चों को तो तुम पहले से
ही मुझसे दूर कर चुकी हो ! मुझसे उनका नाता केवल उनकी आर्थिक ज़रूरतों भर का रह गया
है ! जब पैसों की ज़रुरत होती है वो मुझे फोन करते हैं वरना आज तक उन्होंने न कभी
मेरा हाल पूछा न ही कभी अपने बाबा दादी का
जो उन पर अपनी जान छिड़का करते थे !
जो बातें एक ही घर, एक ही
कमरा, एक ही पलंग शेयर करते हुए भी मैं इतने सालों में तुम्हे नहीं कह सका अब इस
ख़त के माध्यम से कहना आसान हो गया है क्योंकि तुम रूठ कर अपने मायके जो जा बैठी हो
! तुम्हारी सारी शिकायतों, दुखों और समस्याओं को दूर करने के लिए और हमारे इस बेहद
बीमार और बेमानी हो चुके जर्जर रिश्ते को जड़ से ख़त्म करने के लिये मैं इस निष्कर्ष
पर पहुँचा हूँ कि जितनी जल्दी हम अलग हो जायें उतना ही अच्छा होगा ! अब आमने सामने
तो हम दोनों के बीच कभी इतनी तफसील से बात होने की गुंजाइश बाकी रही ही नहीं है इसीलिये
यह पत्र तुम्हें लिखा है कि इसीके माध्यम से कम से कम अपने मन की बात आख़िरी बार
तुम तक पहुँचा दूँ ताकि मन में मलाल न रहे कि अपने मन की बात तुमसे कभी कह ही नहीं
पाया ! जानता हूँ इस पर भी तुम्हें भरोसा नहीं होगा ! शक का कीड़ा जिसके दिमाग में
घुस जाता है वह सब कुछ खोखला करके ही पीछा छोड़ता है ! तुम अपनी जगह अडिग हो और मैं
अपनी जगह ! तुम जैसी तुच्छ और निकृष्ट सोच की स्त्री के साथ अब और निर्वाह मुझसे
नहीं हो सकेगा ! मेरे माता पिता मेरी सबसे पहली और सबसे बड़ी ज़रुरत भी हैं और ज़िम्मेदारी भी ! तुम
उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकतीं और मैं तुम्हें ! इसलिए इस रिश्ते का टूट जाना ही
बेहतर होगा !
एकाध दिन में तुमारे पास तलाक
के लिए मेरे वकील की ओर से नोटिस पहुँच जाएगा ! आशा है तुम उस पर अपनी सहमति की
मोहर लगा दोगी ! इसके बाद तुम भी आज़ाद हो और मैं भी ! बस इतना ही कहना था मुझे !
अपना ख़याल रखना !
कभी जो तुम्हारा था,
भास्कर
साधना वैद
सुंदर व भावुक कर देने वाला पोस्ट।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद तिवारी जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteयथार्थपरक भाववपूर्ण कथा
ReplyDeleteएकल परिवार बढ़ने के कारण बुज़ुर्गों की सेवा कोई नहीं करना चाहता
सार्थक प्रतिक्रिया के लिये हार्दिक धन्यवाद स्मिता ! बहुत बहुत आभार !
Deleteपुरुषों की मार्मिक पीड़ा को शब्द दिए हैं ।
ReplyDeleteहमारे पारिवारिक ढाँचे में पुरुष ही है जो खामोशी से बहुत कुछ झेलता है और सबकी आलोचना का पात्र भी बनता है ! संवेदनशील प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार संगीता जी !
Deleteसत्य एवं सार्थक, मर्म स्पर्शी रचना,पुरूष वेदना का जीवंत चित्रण।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अभिलाषा जी ! बहुत बहुत आभार !
Deleteसुन्दर कहानी, आजकल प्रायः यही हो रहा है लेकिन अभी सास ससुर की सेवा करने वाली स्त्रियाँ भी कम नहीं हैं और वही हमारा सम्बल हैं अन्यथा कोई सास ससुर बहुओं को खुशी खुशी घर में लाने नहीं जायेगा।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद विमल जी ! उम्मीद पर ही दुनिया कायम है ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत घन विश्लेषण
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार जीजी !
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