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Monday, March 3, 2025

दीदार








ज़हर रुसवाई का घुट-घुट के पिया करते हैं 
तुम्हारी याद में जीते हैं हम न मरते हैं
सफर तनहाई का काटे नहीं कटता हमसे 
अब तो आ जाओ कि दीदार को तरसते हैं ।


ओ निर्मोही तरस रहे हैं हम तेरे दीदार को ।
आ जाओ अब करो सार्थक तुम अपने इस प्यार को
तुमने ही तो ज़ख्म दिए हैं और किसे दिखलाएं हम 
कब तक सोखेंगे आँचल में नैनों की इस धार को ।


चित्र - गूगल से साभार 

साधना वैद

8 comments :

  1. निर्मोही... अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
    सादर।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ४ मार्च २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. हार्दिक धन्यवाद श्वेता जी ! बहुत-बहुत आभार आपका ! सप्रेम वन्दे !

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  2. बहुत सुंदर

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    1. हार्दिक धन्यवाद ओंकार जी !

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  3. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद भारती जी !

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  4. वाह! बहुत खूबसूरत सृजन साधना जी !

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    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद शुभ्रा जी !

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