ज़हर रुसवाई का घुट-घुट के पिया करते हैं
तुम्हारी याद में जीते हैं हम न मरते हैं
सफर तनहाई का काटे नहीं कटता हमसे
अब तो आ जाओ कि दीदार को तरसते हैं ।
ओ निर्मोही तरस रहे हैं हम तेरे दीदार को ।
आ जाओ अब करो सार्थक तुम अपने इस प्यार को
तुमने ही तो ज़ख्म दिए हैं और किसे दिखलाएं हम
कब तक सोखेंगे आँचल में नैनों की इस धार को ।
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
निर्मोही... अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ४ मार्च २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद श्वेता जी ! बहुत-बहुत आभार आपका ! सप्रेम वन्दे !
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ओंकार जी !
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद भारती जी !
Deleteवाह! बहुत खूबसूरत सृजन साधना जी !
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शुभ्रा जी !
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