तुम्हारे लिए
मैं आज भी वही
पुराने ज़माने की माँ
हूँ
मेरी बेटी
तुम चाहे मुझसे
कितना भी
नाराज़ हो लो
तुम्हारे लिए
मेरी हिदायतें और
पाबंदियाँ आज भी वही
रहेंगी
जो सौ साल पहले थीं
क्योंकि हमारा समाज,
हमारे आस-पास के लोग,
औरत के प्रति
उनकी सोच,
उनका नज़रिया
और उनकी मानसिकता
आज भी वही है
जो कदाचित आदिम युग
में
हुआ करती थी !
आज कोई भी रिश्ता
उनके लिए मायने
नहीं रखता !
औरत महज़ एक जिस्म है
उनके तन की भूख
मिटाने के लिए !
एक सिर्फ तुम्हारे
प्रबुद्ध
और आधुनिक
हो जाने से
पूरा समाज सभ्य
और उदार विचारों वाला
नहीं बन जाता !
आज भी हमारे आस-पास
तमाम अच्छे लोगों के
बीच
ऐसे घिनौने लोग भी
छिपे हुए हैं
जिनकी सोच कभी
नहीं बदल सकती,
औरत को कुत्सित नज़र
से
देखने की उनकी गंदी
मानसिकता नहीं बदल सकती
और उनके सामान्य से
जिस्मों में
पलने वाला हैवानियत
का
राक्षस नहीं मर सकता
!
इसीलिये कहती हूँ
अपने दिमाग की
खिड़कियाँ खोलो
देह के हिस्से नहीं
!
अपने आत्मबल को
संचित
करके रखो,
क्योंकि शारीरिक बल
में
तुम उन दरिंदों से कभी
मुकाबला नहीं कर
पाओगी
जो घात लगाये हर जगह
सरे राह और अब तो
चलती बसों, कारों
और ट्रेनों में
भी
तुम्हारे पीछे वहशी
कुत्तों
की तरह पड़े रहते हैं
!
अगर बदकिस्मती से
तुम्हारे साथ
कोई हादसा हो गया
तो तुम्हें जीने की
कोई राह नहीं मिलेगी
बेटी
क्योंकि हम तुम लाख
चाहें
कि इस हादसे का असर
तुम्हारे जीवन पर ना
पड़े
लोग एक पल के लिए भी
तुम्हें वह हादसा
भूलने नहीं देंगे !
किसीके उलाहने और
कटूक्तियाँ
तो किसीके व्यंगबाण,
किसीकी दयादृष्टि और
संवेदना
तो किसीके सहानुभूति
भरे वचन,
किसीके गुपचुप इशारे
और संकेत
तो किसीके जिज्ञासा
भरे सवाल
उस भयावह कृत्य को
बार-बार
रिवाइंड कर हर पल हर
लम्हा
तुम्हें फिर से उन्हें
जीने के लिए
विवश करते रहेंगे,
और तुम फिर कभी
सामान्य नहीं हो
सकोगी
महज़ एक ‘ज़िंदा लाश’
बन कर रह जाओगी !
आज मेरे होंठों से
निकली ये बातें
ज़रूर तुम्हें ज़हर सी
कड़वी
लग रही होंगी
लेकिन बेटी बाद में
तुम्हारी आँखों से
बरसते
आँसुओं के तेज़ाब को
मेरे ये होंठ ही
पियेंगे
कोई और नहीं !
तुम्हारी राह रोके
मेरे ये बाजू
जिन्हें झटक कर तुम
आज
बाहर जाना चाहती हो
कल को यही तुम्हारे
रक्षा कवच बन
अपनी बाहों में समेट
तुम्हें पनाह देंगे
कोई और नहीं !
इसलिए आज तुम्हें
अपनी
इस ‘दकियानूस’ माँ
की
हर बात माननी पड़ेगी
!
दुनिया के किसी भी
कोने में
तुम चली जाओ
आदमी आज भी हैवान ही
बना हुआ है और
इसका खामियाजा आज भी
औरत को ही उठाना
पड़ता है !
शायद ऊपर वाले ने भी
उसे ही अपनी
नाइंसाफी का
शिकार बनाया है !
साधना वैद
जब भी कोई ऊपर वाले पर कोई इल्ज़ाम लगाता है तो यह उनके दिल पर क़ियामत की तरह टूटता है जो सत्य जानते हैं। सत्य यह है कि उस पालनहार प्रभु ने किसी पर कोई ज़ुल्म नहीं किया है। उसने मुनष्य को पेड़-पौधों और पशुओं से उच्चतर चेतना दी है। पेड़-पौधे और पशु सभी अपने स्वाभाविक कर्तव्य अंजाम देते हैं लेकिन यह इंसान ही है जो कि अपने अधिकार का ग़लत इस्तेमाल करता है। परस्पर सहयोग के बजाय शोषण कौन करता है ?
ReplyDeleteयह काम इंसान करता है।
जो शोषण की शिकायत करता है, वही दूसरे स्तर पर ख़ुद शोषण करता हुआ नज़र आएगा। अपनी बहुओं से दहेज का लालच न रखने वाली और दूसरों का उदाहरण देकर उसके दिल को न जलाने वाली सास ननदें कितनी हैं ?
दहेज हत्या से लेकर कन्या भ्रूण हत्या तक, दर्जनों घिनौने अपराध बिना औरत के सहयोग के संभव ही नहीं हैं।
तांत्रिकों और बाबाओं को अपना रूपया और अपनी अस्मत देने के लिए औरत ख़ुद चलकर उनके डेरे पर जाती है। जो पढ़ी लिखी होने का दंभ रखती हैं और बाबाओं के पास नहीं जातीं, वे हीरोईनें और मॉडल्स बनकर दुनिया के सामने ख़ुद को परोसती हैं। पर्दे के पीछे उनके साथ क्या होता है ?, इसकी कहानियां भी समय समय पर सामने आती रहती हैं। वे तो आग भड़काकर पीछे हट जाती हैं लेकिन क्लिंटन अपने ऑफ़िस की किसी न किसी लेविंस्की को थाम ही लेता है। लेविंस्की न मिले तो अपने ब्वायफ़्रेंड के साथ देर रात अकेले घूमती हुई कोई आधुनिका ही सही। जागरूक शिक्षित कन्याएं आजकल गर्भनिरोधक गोलियां खा रही हैं और लिव इन रिलेशनशिप में रहकर अपनी मर्ज़ी से अपना शोषण करवा रही हैं।
ईश्वर की एक निर्धारित व्यवस्था है, जिसका नाम सब जानते हैं। जब आदमी या औरत उससे बचकर किसी और मार्ग पर निकल जाए तो फिर वह जिस भी दलदल में धंस जाए तो उसके लिए वह ईश्वर को दोष न दे बल्कि ख़ुद को दे और कहे कि मैं ही पालनहार प्रभु के मार्गदर्शन को छोड़कर दूसरों के दर्शन और अपनी कामनाओं के पीछे चलता रहा/चलती रही।
परमेश्वर तो लोगों पर तनिक भी अत्याचार नहीं करता, किन्तु लोग स्वयं ही अपने ऊपर अत्याचार करते है (44) जिस दिन वह उनको इकट्ठा करेगा तो ऐसा जान पड़ेगा जैसे वे दिन की एक घड़ी भर ठहरे थे। वे परस्पर एक-दूसरे को पहचानेंगे। वे लोग घाटे में पड़ गए, जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठलाया और वे मार्ग न पा सके (45)
सूरा ए यूनुस आयत 44 व 45
आदमी आज भी वही है जोकि वह आदिम युग में था। समय के साथ साधन बदलते हैं लेकिन प्रकृति नहीं बदलती। बुरे लोगों की बुराई से बचने के लिए अच्छे लोगों को संगठित होकर अच्छे नियमों का पालन करना ही होगा। इसके सिवाय न पहले कोई उपाय था और न आज है।
See:
http://commentsgarden.blogspot.in/2012/12/blog-post.html
अत्यंत प्रभावशाली रचना ...
ReplyDeleteबहुत कुछ सोचने पर बाध्य कर रही है ...
sach bayan kar rahi kavita ke lie aabhar !
ReplyDeleteab to bahut dar lagne laga hai har ma ko kaash hamari betiyon me itni takat hoti ki ve darindon ka naash kar paati .......
ReplyDeleteमा!ं की भावनाए सर्वोपरी होती है जमाना कितने भी बदल जाए..
ReplyDeleteपहले लड़कियाँ घर में रहती थीं तो ज्यादा सुरक्षित थीं...आज की लड़कियों पर दोहरा दबाव है...अपना केरियर बनाना है तो बाहर निकलना ही पड़ेगा और हर समय कोई साथ रहे यह सम्भव नहीं...इस तरह की घटनाएँ खौफ पैदा कर देती हैं|
ReplyDeleteउम्दा रचना|
ReplyDeleteआशा
कोमल भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeleteप्रभावशाली सीख देती उत्कृष्ट रचना,,
ReplyDeleterecent post: वजूद,
यह दकियानूसी नहीं है , चिंता है अपने बच्चों की जो उन्हें सुरक्षित देखना चाहती है !
ReplyDeletemaa apne kathit dakiyanusi soch ko kaise badle jab tak ki ye purush apni nazar, apni soch nahi badalta.
ReplyDeleteek jagruk, samvedansheel maa ki beti ke prati chinta vazib hai.
kavita thodi lambi ho gayi hai lekin vishay aisa hai ki iski lambayi nazarandaaz ho jati hai.
संवेदनशील रचना...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (21-12-2012) के चर्चा मंच-११०० (कल हो न हो..) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
बस सोच रही हूँ माँ
ReplyDeleteकितनी सार्थक थी तुम्हारी बातें
मैं भी बनी हूँ पुराने ज़माने की माँ
बेटी के प्रति सुरक्षा को ले कर एक माँ की चिंता ... और इसी लिए वो सीख दे रही है .... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteवाह बहुत ही सुन्दर....संवेदनशील रचना
ReplyDelete
ReplyDeleteडॉ .अनवर ज़माल आप विषय ही ,पोस्ट की प्रस्तावना ही अदबदाके बदल रहें हैं .एक माँ की दुश्चिंता बेटी के प्रति है यहाँ रही बात कन्या भ्रूण हत्या की ,पत्नी के गर्भ धारण की ,इस पर आज भी
पुरुष का ही वर्चस्व है ,एक माँ की दुश्चिंता बूझने के लिए ,माँ बनना पड़ेगा
सोचने पर मजबूर करती अति संवेदन शील रचना... आभार
ReplyDelete@ श्री वीरेन्द्र कुमार शर्मा जी ! बेटी के प्रति मां की दुश्चिंता जानने के लिए हो सकता है कि मां बनना पड़े लेकिन बेटी की सुरक्षा की चिंता एक बाप भी बूझ सकता है।
ReplyDeleteप्रभावपूर्ण तरीके से आपने इस समस्या को उठाया है. इस प्रश्न का जबाव सभी चाहते हैं.
ReplyDeletehttp://urvija.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_24.html
ReplyDeleteइस ‘दकियानूस’ माँ की
ReplyDeleteकही बात हर बात ... सच है
हर शब्द मन के गहरे उतरता हुआ
बेहद सशक्त रचना
आभार सहित
सादर