रेखा जी ने पूछा एक
सवाल
आज कौन-कौन निभा
पाया
अपनी रजाई से प्यार
?
सुनाना चाहा जो हाले
दिल तो
बन गयी यह कविता
मज़ेदार !
दिन था रविवार
एक तो वैसे ही घर
में रहती है
किस्म-किस्म के
कामों की भरमार
उस पर अगर बच्चों की
छुट्टी हो तो
घर में माहौल ऐसा हो
जाता है
जैसे चल रहा हो कोई
बड़ा सा उत्सव या
त्यौहार !
तरह तरह की फरमाइशें
तरह तरह के इसरार !
एक खत्म हुई नहीं कि
दूसरी का इज़हार !
ऐसे में भला कौन
निभा सकता है
रजाई से अपना प्यार
!
उस पर आने जाने
वालों का
तांता बेशुमार !
चेहरे पर कभी सच्ची
तो कभी झूठी
मुस्कराहट लिये
हम करते
रहे
सबका स्वागत हर बार !
खड़े रहे किचिन में
ड्यूटी पर झख मार
बनाते रहे और पीते
पिलाते रहे
सबको चाय बार-बार !
और हसरत भरी निगाहों
से
किचिन से ही निहारते रहे
अपनी प्यारी रजाई को
मन मार
जो सुबह एक बार तहाने
के बाद
शाम होने तक
खुली
ही नहीं थी
एक भी बार !
तो हमारा तो ऐसा
बीता रविवार
और आपका ?
साधना वैद
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