वृद्ध होकर मैं धरा पर एक दिन गिर जाउँगा
जानता हूँ मैं किसीके काम फिर ना आउँगा !
अब नहीं फलते रसीले आम मेरी शाख पर
लग रहा बट्टा मेरी ऐश्वर्यशाली साख पर !
हैं नहीं पावन मुलायम पात वन्दनवार को
पोंछने को हैं न पत्ते पथिक की श्रम धार को !
दे नहीं सकता हवा अब मैं किसी भी क्लांत को
तनिक छाया दे न पाऊँ श्रांत से दिग्भ्रांत को !
संकुचित होते विहग भी बैठने में डाल पर
पड़ न जाए काल की दृष्टि सुखी संसार पर !
है झुलाया जिनको वर्षों लोग वो डरने लगे
टूट ना जाएँ मेरी सूखी भुजा कहने लगे !
किन्तु फिर भी हूँ खड़ा मैं आज भी अभिमान से
हूँ अकिंचन आज पर जीवन जिया है शान से !
आज भी है हौसला और जोश भी कुछ कम नहीं
दिया जो अब तक जगत को मान उसका कम नहीं !
जगत की अवहेलना का दंश चुभता है मुझे
लिया जिसने ज़िंदगी भर दे सकेगा क्या मुझे !
जग मुखर सामर्थ्य पर अवसान पर वह मौन है
वृद्ध दुर्बल जर्जरों का इस जगत में कौन है !
कोई समझे या न समझे है ‘उसे’ सबकी फिकर
अनवरत संघर्ष पर मेरे ‘उसे’ होता फखर !
किया अभिनन्दन मेरा देकर मुझे सम्मान यह
है मुझे स्वीकार मन और प्राण से वरदान यह !
मुकुट से जो दीखते हैं पात मेरे शीश पे
किया है श्रृंगार प्रभु ने प्रेम से आशीष दे !
साधना वैद
चित्र - गूगल से साभार
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