चूल्हे के नाम से ही
माँ याद आ जाती हैं
रसोईघर में चूल्हे के पास पटे पर बैठीं
साक्षात अन्नपूर्णा सी माँ !
जलती लकड़ियों की आँच से तमतमाया
उनका कुंदन सा दमकता चेहरा,
माथे पर रह रह कर उभरते श्रम सीकर,
आँखों में अनुपम अनुराग और
चहरे पर तृप्ति की अनुपम कांति !
हम बच्चों को चूल्हे पर औंटे सौंधे सौधे
गुलाबी दूध के गिलास थमाती माँ !
चूल्हे पर चढ़ी लोहे की भारी सी कढ़ाही में
करारी करारी पूरियाँ कचौड़ियाँ उतारती माँ !
चूल्हे की मद्धम आँच पर लकड़ी से टिका कर
फूली फूली कुरकुरी रोटियाँ सेकती माँ !
बटलोई में खदर बदर की आवाज़ सुन
दक्षता से दाल सब्जी को चलाती माँ
चूल्हे की लकड़ी से बने अंगारों पर
चावलों को दम करती माँ !
कड़कड़ाती ठण्ड में भी माथे पर छलक आये
पसीने को आँचल से सुखाती माँ !
चूल्हे की धीमी आँच में भूनने के लिए
कभी बैंगन, कभी आलू तो कभी बाटियाँ
बड़े ही करीने से दबाती माँ !
सुस्वादिष्ट बैंगन का भरता,
आलू की चाट और दाल बाटी चूरमा
तैयार कर बड़े ही प्यार से परोसती माँ !
माँ ने अपने जीवन में कभी रसोई के
आधुनिक उपकरण नहीं देखे
लेकिन चूल्हे पर ही जितने लाजवाब
व्यंजन उन्होंने पका कर खिलाये
संसार का कोई भी मास्टर शेफ
उनकी बराबरी नहीं कर सकता
माँ तो साक्षात अन्नपूर्णा का रूप थीं
कोई उनसे उनका यह तमगा
नहीं छीन सकता !
पते की बात कही है आपने।
ReplyDeleteवाकई माँ का स्थान कोई नहीं ले सकता।
हार्दिक धन्यवाद शास्त्री जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteवैसे शेफ़ के खाने के लिए भुगतान भी तो करना पड़ता है।
ReplyDeleteगैस के बर्नर और कूकर से इतर चूल्हे पर बनने वाले पीतल, लोहे और मिट्टी के बर्तनों में पकने वाले खानों की सोंधी यादें ताजा हो गईं।
इस तरह का माहौल कमोबेश बिहार में मनाए जाने वाले छठ नामक त्योहार में लोग साल में एक बार जी लेते हैं।
वैसे केवल माँ का नाम लेना ... थोड़ी बेईमानी हो जाएगी ... शायद ...
हार्दिक धन्यवाद सुबोध जी ! यूँ तो हमारे देश के गाँवों में, वो चाहे राजस्थान हो, मध्य प्रदेश हो, उत्तर प्रदेश हो या फिर बिहार या गुजरात हो, चूल्हे पर पके खाने का जायका बदस्तूर चखने के लिए मिल जाएगा ! मेरी स्मृतियाँ अपने बचपन से जुडी हुई हैं ! उन दिनों हमारे यहाँ खाना चूल्हे पर ही बनता था ! मैं बिहार कभी नहीं गयी लेकिन छठ पर्व के बारे में सुना और पढ़ा बहुत है ! आपने रूचि लेकर रचना को पढ़ा आपका बहुत बहुत आभार !
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !
Deleteआदरणीय साधना जी , माँ का अन्नपूर्ण का तमगा सचमुच कोई नहीं छीन सकता | माँ के चूल्हे और चौके को आपने बहुत ही भाव से याद किया है |मन को स्पर्श कर गयी आपकी ये रचना | मेरी एक रचना की कुछ पंक्तियाँ आपकी इस रचना विशेष के नाम --
ReplyDeleteमाँ अब समझी हूँ प्यार तुम्हारा
तुम जो रोज कहा करती थी --
धरती और माँ एक हैं दोनों ,
अपने लिए नहीं जीती हैं -
अन्नपूर्णा और नेक हैं दोनों ;
माँ बनकर मैंने जाना है -
औरो की खातिर जीना कैसा है ,
जीवन - अमृत पीने की खातिर -
मन के आंसूं पीना कैसा है -,
और टूटा मन सीना कैसा है -?
खुद को मिटाया तो जाना है -
अम्बर सा विस्तार तुम्हारा !
माँ अब समझी हूँ प्यार तुम्हारा !\
सप्रेम शुभकामनाएं|
खिड़की से देखा करती हूँ --
,
हार्दिक धन्यवाद रेणु जी ! बहुत ही सुन्दर सशक्त रचना साझा की आपने ! अत्यंत भावपूर्ण एवं गहन ! सत्य है माँ बनाने के बाद ही जाना जा सकता है कि माँ बनना क्या होता है !बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार कुलदीप जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteबहुत शानदार रचना |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२७ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद आपका श्वेता जी ! बहुत बहुत आभार ! सप्रेम वन्दे सखी !
ReplyDeleteअप्रतीम रचना सखी बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सजीव चित्रण के लिए बधाई |
ReplyDeleteदिल से आभार आपका जीजी ! बहुत बहुत धन्यवाद जी !
Deleteवाह!साधना जी ,आपनें पुरानी यादें ताजा कर दी । बहुत ही खूबसूरत सृजन । सही है माँ से अच्छा शेफ तो दुनियाँ में कहीं न मिलेगा ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शुभा जी ! रचना आपको अच्छी लगी मेरा श्रम सफल हुआ ! आपका हृदय से बहुत बहुत आभार !
Deleteमुझे अपना बचपन याद आ गया. ऐसे ही मिटटी के चूल्हे पर लकड़ी के जलावन से मेरी दादी खाना बनाती थी, जब वह गाँव में थी. बहुत अच्छी यादें और अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जेनी जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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