देख रही हूँ
जीवन घट रीतता ही जाता है
सुख का कोई भी पल
कहाँ थोड़ी देर भी टिकता है
वक्त के हलके से झोंके के
साथ
बीतता ही जाता है !
बड़े नाज़ से उठाये थी मैं
अपने अनमोल रिश्तों की
खूबसूरत सी कलसी
कितनी उल्लसित थी
बाँध ली थीं खूब कस कर
सारी खुशियाँ मुट्ठी में !
पुरज़ोर कोशिश रहती थी
एक भी नन्हा सा लम्हा
कभी खिसकने न दूँ अपने
हाथों से !
सारी दुनिया गुलज़ार कर दूँ
अपने मधुर गीतों से
अपनी मीठी बातों से !
लेकिन जाने कब, कैसे, किस जतन से
यह निष्ठुर वक्त मुझे छल गया
और मेरी हथेलियों से
मेरी खुशियों का वो राजमहल
रेत की मानिंद फिसल गया !
रीतता जाता है मेरा जीवन घट
!
अब जो शेष है उस घट में
वो हैं कुछ आतंकित उम्मीदें,
कुछ सहमी हुई अभिलाषाएं,
कुछ कुम्हलाये हुए सपने
और हैं वक्त के सफ़र में
हाथ छुड़ा कर जाने को तैयार
कई परिचित अपरिचित चहरे
कुछ बेगाने कुछ अपने !
जाने कब कौन हाथ छुड़ा कर
अगले स्टेशन पर उतर जाए
और मेरा जीवन घट
और भी रीता कर जाए !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
क्या खोया, इसका हिसाब क्यों किया जाए?
ReplyDeleteआज का पल जी भर के जी लिया जाए और बीते हुए कल की या आने वाले कल की फ़िक्र ऊपर वाले पर छोड़ दी जाए !
सौ टका सही बात गोपेश जी लेकिन मन है कि मानता नहीं ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteशानदार ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद विक्षिप्त जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteखूबसूरत भावनात्मक पंक्तियाँ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद तिवारी जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद एवं आभार आपका ओंकार जी !
Deleteहार्दिक धन्यवाद आपका सुधा जी ! बहुत बहुत आभार !
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