उम्र के इस मोड़
पर पहचान जैसे खो गई
हैं पशेमाँ सोच
कर क्या भूल हमसे हो गई !
यूँ ज़माने ने
बहुत आगाह था हमको किया
चाह बैठे हम
तुम्हें यह भूल हमसे हो गई !
खोलते जो आँख
दिख जातीं कई दुश्वारियाँ
बंद आँखों
देखने की भूल हमसे हो गई !
रौंद डाला हर
कली को नोंच कर जिस शख्स ने
बागबाँ उसको ही
समझे भूल हमसे हो गयी !
खो गईं कितनी
पुकारें इन खलाओं में कहीं
समझ लोगे मौन
भी यह भूल हमसे हो गयी !
सब्ज़ तो होते
नहीं सब बाग़ सहरा में मगर
बारिशों की आस रखना
भूल हमसे हो गयी !
भूल से भी भूल
कर अब कुछ न चाहेंगे कभी
भूलना फितरत
हमारी भूल हमसे हो गयी !
साधना वैद
भूलना फितरत हमारी
ReplyDeleteभूल हमसे हो गयी
शानदार ग़ज़ल
आभार
हार्दिक धन्यवाद यशोदा जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आलोक जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteसमझ लोगे मौन भी यह भूल हमसे हो गयी !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत ग़ज़ल।
हार्दिक धन्यवाद जिज्ञासा जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत सुन्दर रचना
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