शब्दों
की बैसाखियों के सहारे
शिथिल
चाल से
मंज़िल
तक पहुँचने का
हर
उपक्रम विफल सा
क्यों
हो जाता है !
बीतते
समय के साथ
हर
शब्द के मायने
क्यों
बदल जाते हैं !
एक
बहुत पाकीज़ा
बहुत
नाज़ुक
बहुत
ताज़ा सा ख़याल
अनायास
ही मुरझा कर
बासी
और दूषित सा
क्यों
हो जाता है !
शब्दों
की ये कैसी
फितरत
है जो
चाहे
सन्दर्भ वही हो
प्रसंग
भी वही हो
कहने
और सुनने वाले
पात्र
भी वही हों
लेकिन
वक्त के साथ
उनके
अर्थ बदल जाते हैं !
बैसाखी
का हर शब्द
आज
जैसे जर्जर होकर
बिखर
सा गया है
और
एक कदम भी
आगे
बढ़ने से इनकार
कर
देता है !
भावनाओं
की डोर
कच्ची
हो टूटने लगती है
और
मन का अवसाद
गहराता
जाता है !
जब
तक शब्दों की
नयी
बैसाखियाँ ना मिल जायें
इन
टूटी बैसाखियों से
तौबा
करना ही ठीक होगा
क्योंकि
ये अपना
धर्म
भूल गयी हैं !
रीढ़
को सहारा देकर
सीधा
रखने की जगह
ये
उसे भूमि पर गिराने को
उद्यत
हो गयी हैं !
अर्थ
खो चुके शब्दों से तो
मौन
ही भला है !
है
ना !
साधना
वैद
अर्थ खो चुके शब्दों से तो
ReplyDeleteमौन ही भला है !
है ना !
गहन और सार्थक बात ....!!
बहुत सुन्दर रचना ....!!
SUNDAR PRASTUTI .
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वक़्त था - जब शब्दों का रिश्ता बनता था
ReplyDeleteअनकहे शब्द भी अपनी धरती अपना आँगन बना लेते थे
अब शातिर से शब्दों की शतरंजी चाल के आगे
रिश्ते हतप्रभ!
सवालों की नोक पर असहाय बीमार से हैं
अपाहिज शब्दों से किसी का क्या लेना-देना
अब तो स्नेहिल शब्द भी मात्र दिखावा करार कर दिये जाते हैं ... हर कोई शब्द का अर्थ अपने अनुसार ही लगा लेता है ... सच मौन ही भला ....
ReplyDeleteसुन्दर और सार्थक रचना
ReplyDeleteसच है अर्थ खो चुके शब्दों से तो मौन ही भला... गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसारा खेल शब्दों का ही है ..... बस शब्द हमारे साथ न खेल जाएँ, इतना तो समझना होगा
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि क़ी चर्चा सोमवार [22.4.2013] के 'एक गुज़ारिश चर्चामंच' 1222 पर लिंक क़ी गई है,अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए पधारे आपका स्वागत है |
ReplyDeleteसूचनार्थ..
ReplyDeleteदिखावा के जमाने में शब्द भी एक दिखावा है
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सही कहा अब मौन ही रहने को मन करता है
ReplyDeleteअर्थ खो चुके शब्दों से तो
ReplyDeleteमौन ही भला है !
बेहद गहन एवं सशक्त भाव लिये उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
गहन,सार्थक बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
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