छिप बादल की ओट गगन में चमक रहे हैं
सूरज दादा आज खुशी से चहक रहे हैं
भोला सा यह रूप भानु का प्यारा लागे
धुप छाँह का जाल जगत में न्यारा लागे !
जब जब भी पंछी दल उड़ कर ऊपर जाते
सूरज दादा हँस-हँस कर उनसे बतियाते
गूँज रहा उनके कलरव से कोना-कोना
भाता हमको सूरज का यह रूप सलोना !
कभी-कभी है उनको गुस्सा भी आ जाता
तब धरती का हर प्राणी है जल सा जाता
लेकिन जब कौतुक करने का मन आता है
नभ में सुन्दर इन्द्रधनुष इक छा जाता है !
साधना वैद
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-11-2019) को "रंज-ओ-ग़म अपना सुनाओगे कहाँ तक" (चर्चा अंक- 3510) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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दीपावली के पंच पर्वों की शृंखला में गोवर्धनपूजा की
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सस्नेह वन्दे !
ReplyDeleteसुंदर बाल गीत.बचपन मे में भी ऐसे ही सूरज ,चाँद ,तारो की कविताएं लिखा करती थी..बचपन याद आ गया... अंतिम बंक की चार पंक्तियां बहुत प्रभावशाली लिखी आपने
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! आभार आपका !
Deleteबहुत सुंदर और प्यारी रचना
ReplyDeleteहृदय से धन्यवाद आपका अनुराधा जी ! आभारी हूँ !
Deleteबहुत प्यारी रचना |
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