हर रोज़ सुबह देखती हूँ
हवाओं में उड़ती जिज्ञासाओं को
पंछियों के झुण्डों के रूप में !
उड़ते ही जाते हैं दूर दूर तक गगन में
जब तक दृष्टि से ओझल ना हो जाएँ !
मेरा मन भी उल्लसित हो
उड़ता जाता है उनके साथ
न जाने किस आशा में किस उम्मीद में !
दिन भर एक पुलक सी छाई रहती है हृदय में
जैसे कुछ अद्भुत आने वाला है सामने !
संध्या होते ही हर रोज़ देखती हूँ उन्हें
लौटते हुए क्लांत, श्रांत, विभ्रांत
कौन जाने अपना लक्ष्य उन्हें मिला या नहीं
नहीं जानती वे खुश लौटते हैं या उदास
लेकिन मेरे मन में छन्न से कुछ टूट जाता है
और मेरा मन बहुत उदास हो जाता है
हवाओं में उड़ती सुबह की जिज्ञासाएं
साँझ होते ही छिन्न भिन्न हो जाती हैं
एक दिन और बीत जाता है ज़िंदगी का
उम्र एक दिन और कम हो जाती है !
साधना वैद
सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDelete--
सुबह होती है शाम होती है।
उम्र यूँ ही तमाम होती है।
हार्दिक धन्यवाद शास्त्री जी ! बहुत बहुत आभार !
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 2.7.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा -3750 पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार दिलबाग जी ! सादर वन्दे !
Deleteपंछी तो हर हाल में खुश हैं, इंसान का मन ही डोलता रहता है
ReplyDeleteजी बिलकुल सत्य कहा आपने अनीता जी ! हृदय आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार !
Deleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! आभार आपका !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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